poemofsachinkumar
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मैं बुजुर्ग हूं,
घर के बाहर बैठा,
अकेला,
लाचार,
पल-पल सहता अत्याचार,
ढह चुके खंडहर महलों का,
वही पुराना दुर्ग हूँ,
मैं बुजुर्ग हूं।
कभी डाँटता,
कभी डाँट सहता,
कभी कुछ न कहता,
रहता अपनों के बीच,
आँखों में होती कींच,
रहता दिल को भींच,
थोड़ा खुद्दार,
थोड़ा खुदगर्ज हूं,
मैं बुजुर्ग हूं।
पथराई आँखें,
कभी भीतर,
कभी बाहर झांकें,
रहता इंतजार,
मन करता पुकार,
बीत चुका कुछ,
कुछ बचा बाक़ी,
अपनी जिंदगी का,
लिख रहा खुद संदर्भ हूं,
मैं बुजुर्ग हूं।
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